
महाकवि तुलसीदास ने सुन्दरकाण्ड में समुद्र के कथन के रूप में लिखा है—
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु ,नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
'सकल ताड़ना के अधिकारी' कहकर तुलसीदास ने 'ताड़ना' क्रिया पद को पाँच चीजों से जोड़ दिया है। दरअसल एक क्रिया पद से ही वे पाँच अर्थ की ध्वनियों को एक साथ प्रकट करते हैं। यह उनकी बड़ी काव्य प्रतिभा का द्योतक है।
ढोल के लिए ताड़ना पतली लकड़ी की कमानी से होता है। उसकी चोट पर ही ध्वनि निकलती है। भारतीय परम्परा में पर्व, उत्सव, पूजा, शादी या शवयात्रा के समय ढोल की ध्वनि वातावरण के विविध जीवाणुओं को ध्वस्त कर देती है। लेकिन ढोल बजाना एक कला है। इस कला को सीखना श्रमसाध्य कार्य है। ढोल पीटने वाला तो कोई भी हो सकता है। पर ढोल के ताड़न का अधिकारी तो इस कला में निष्णात ही हो सकता है।
गंवार मूर्ख व्यक्ति को कहते हैं। उसके लिए ताड़ना डाँटने के लिए प्रयुक्त हुआ है। उसे डाँटने की आवश्यकता इसलिए है कि वह कार्यकुशलता से लैस हो।
वैदिक काल में शूद्र अपराधी लोगों को कहा जाता था। चूंकि शूद्र क्षुद्र होते थे, इसलिए वे दंड के भागी थे। पशु के लिए यह बल प्रयोग के रूप में प्रयुक्त है। लेकिन नारी के लिए ताड़ना फटकारने के लिए प्रयुक्त होता है। कुछ लोग नारी (जो निश्चित तौर पर अपनी पत्नी है) उसको फटकारने की बात पर भी तुलसीदास से नाराज होते हैं। लेकिन जहाँ प्यार होता है, वहाँ थोड़ा बहुत डाँट-फटकार तो होता ही है।
अधिकारी होने के लिए अधिकार प्राप्त करना पड़ता है। उसके लिए कीमत भी चुकानी होती है। जिसकी ढोल होगी, अर्थात जो ढोल का अधिकारी होगा, साथ ही उस पर जिसका स्वामित्व होगा, वही तो उसे बजाएगा। यहाँ अधिकारी का अर्थ कार्यकुशल के रूप में लेना चाहिए। कोई मूर्ख बेटा या अपना प्रियजन होगा, डाँटने का अधिकारी वह होगा, जिससे उसका सरोकार है। यहाँ अधिकारी का अर्थ हकदार है। शूद्र अर्थात अपराधी को तो न्याय व्यवस्था के अधिकारी ही सजा देने के अधिकारी हैं। पशुओं के पालक ही उसको डाँटने के अधिकारी होते हैं। यहाँ अधिकारी का अर्थ मालिक से है।
अपनी पत्नी को उसका पति जितना डाँटता है, उतना पत्नी भी डाँटती है। दाम्पत्य जीवन में नोक-झोंक तो चलती ही रहती है। प्रेम में क्या इतना अधिकार भी नहीं रह सकता!
जड़ता से भरा हुआ समुद्र जब तीन दिनों तक अनवरत राम की विनयरत वाणी को अनसुनी कर देता है, तब राम के विकट रूप के आगे प्रकट होकर प्रार्थनारत हो जाता है—
विनय न मानत जलधि जड़, गए दिवस तिन बीति।
बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीति।।
कुछ लोग सबकुछ ताड़ लेते है, अर्थात समझ लेते हैं। ताड़ना में सीखने-सिखाने का भाव भी समाहित रहता है। तिल को लेकर ताड़ पर चढ़ जाने वाले लोग भी होते हैं और ताड़ना को तार देने वाले भी।
कुछ विद्वानों का मानना है कि ताड़ना शब्द मूल रूप से तारना है। तारना का अर्थ उद्धार करना है, जैसे नागार्जुन की इन्दिरा गाँधी पर कविता है— "बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को।" तारनहार लोग ढोल का उद्धार करने की कोशिश में भी लगे रहते हैं। ताड़ लेना गूढ़ार्थ को समझ लेना है। पर ऐसे-ऐसे लोग भी हैं, जो तिल का ताड़ बना देते हैं। ऐसे लोगों के मिलने से मुझे प्रसन्नता होती है। हनुमान अणिमा शक्ति का प्रयोग कर तिल आकार के भी हो सकते हैं और कभी "धरहि भूधराकार शरीरा।" अर्थ की व्याप्ति और संभावनाएं असीम हैं। इसी की ओर इशारा करते हुए तुलसीदास ने लिखा है— " अरथ अमित अति आखर थोरे!"
शब्दों के तीन प्रकार के अर्थ व्यंजित होते हैं। ये अर्थ ही शब्द की शक्तियाँ है। तरह-तरह के अर्थों से युक्त होकर ही शब्द उदात्त गरिमा को प्राप्त कर ब्रह्म की चेतना के वाहक बनते हैं। शब्द-साधक ही बौद्धिक क्षमता से सम्पन्न होकर अद्भुत उड़ान भरते हैं और उनकी बातों को सुनकर— "अचरज नहिं मानहिं, जिनके विमल विचार।"