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विद्वान साहित्यकार एवं संपादक आ. जयप्रकाश मानस जी ने अपनी फेसबुक वॉल पर 'कवियों' पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है— "हिंदी का कवि इस भरम में अमर बने रहने को श्रापित है कि कविता का प्रारंभ और अंत दोनों उसी से ही होता है!" मानस जी की इस सारगर्भित टिप्पणी पर तमाम भावकों ने 'कवि के भरम' पर अपनी जरूरी प्रतिक्रियाएँ भी दी हैं। उक्त टिप्पणी पर मुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह अपने आप में बहुत बड़ी बात कहती प्रतीत होती है।

यहाँ पर मैं, इस टिप्पणी के बहाने, अपनी बात रखना चाहता हूँ— 'अमर बने रहने' का 'भरम' मनुष्य को शापित कर देता है। पहली बात तो यह कि इस नश्वर संसार में अमर होकर दर-दर भटकने में कोई समझदारी नहीं दिखाई पड़ती है। अगर समझदारी ही होती तो, जैसा कि पौराणिक कथाओं में कहा गया है, भला कलयुग के देवता अमर होने का वरदान लिए मुक्ति के लिए क्यों भटक रहे होते? दूसरी बात यह कि जब 'अमर बने रहने' का 'भरम' ही है, तो शापित होना या ना होना— दोनों ही स्थितियाँ दुखदाई है। कहीं सुना है कि माया (भ्रम) का कार्य ही है— भ्रमित करना। श्रीमदभगवद् गीता में कहा गया है— "दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया" (7.14) अर्थात् यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। बाबा कबीर भी यही कहते हैं—

माया महा ठगनी हम जानी।।

तिरगुन फांस लिए कर डोले

बोले मधुरी बानी।।


काऊ के हीरा होइ बैठी

काऊ के कौड़ी कानी।।

भगतन की भगतिन होइ बैठी

बृह्मा के बृह्मानी।।


कहे कबीर सुनो भई साधो

यह सब अकथ कहानी।।


माया की इस 'अकथ कहानी' को सुनकर प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि माया के प्रभाव में व्यक्ति को क्या इतना ज्ञान रह जाता है कि वह निर्णय कर सके कि वह माया के वशीभूत है भी कि नहीं है, 'भरम' में है भी कि नहीं है? क्या ऐसे लोगों की बात को सच मान लेना ठीक है जो, जहाँ देखो वहाँ, कहते फिरते हैं कि उन्होंने 'ऐसे भरमी लोगों को देखा है'? और क्या ऐसे लोगों की बात को सच मान लेना ठीक है जो, जब देखो तब, खुद को 'भरममुक्त' बताने में पीछे नहीं रहते? मुझे यहाँ चर्चित कवि कुमार मुकुल जी याद आ रहे हैं—

जब तुझे लगे

कि दुनिया में सत्‍य

सर्वत्र हार रहा है


समझो

तेरे भीतर का झूठ

तुझको ही

कहीं मार रहा है।


यहाँ पर एक प्रसंग याद आ रहा है। एक बार सदगुरु बाबा मत्स्येंद्रनाथ ने अपने परम शिष्य बाबा गोरखनाथ की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उनके सिर को बड़े प्यार से 'ठोकना' प्रारंभ कर दिया। गुरुजी उनका सिर ठीक वैसे ही ठोंक रहे थे जैसे कोई कुम्हार अपने घड़ों को ठोंक-बजाकर उनके कच्चे-पके होने की परीक्षा करता है। बाबा गोरखनाथ यह सब कुछ देर तक बड़े शांत भाव से देखते रहे। फिर अचानक वह बोल पड़े— "हे परम दयालु गुरुदेव, मैं अब कच्चा नहीं रहा हूँ।" इतना कहना हुआ कि सद्गुरु ने कहा— "गोरखनाथ, इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम परमभक्त हो, किंतु अभी भी तुम्हारे भीतर 'कुछ होने' का बहुत सूक्ष्म अहंकार बना हुआ है। इससे मुक्त हुए बिना तुम 'माया' से मुक्त' नहीं हो सकते।" माया से मुक्ति के बिना भगवत प्राप्ति संभव नहीं और इसके लिए श्रीमदभगवद् गीता में कहा ही जा चुका है— "मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते" (7.14) अर्थात् जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।

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