
राग गौड़ मलार
आदि सनातन, हरि अबिनासी। सदा निरंतर घट-घट बासी॥
पूरन ब्रह्म, पुरान बखानैं। चतुरानन, सिव अंत न जानैं॥
गुन-गन अगम, निगम नहिं पावै। ताहि जसोदा गोद खिलावै॥
एक निरंतर ध्यावै ज्ञानी। पुरुष पुरातन सो निर्बानी॥
जप-तप-संजम ध्यान न आवै। सोई नंद कैं आँगन धावै॥
लोचन-स्रवन न रसना-नासा। बिनु पद-पानि करै परगासा॥
बिस्वंभर निज नाम कहावै। घर-घर गोरस सोइ चुरावै॥
सुक-सारद- से करत बिचारा। नारद-से पावहिं नहिं पारा॥
अबरन-बरन सुरनि नहिं धारै। गोपिन के सो बदन निहारै॥
जरा-मरन तैं रहित, अमाया। मातु-पिता, सुत, बंधु न जाया॥
ज्ञान-रूप हिरदै मैं बोलै। सो बछरनि के पाछैं डोलै॥
जल, धर, अनिल, अनल, नभ, छाया। पंचतत्त्व तैं जग उपजाया॥
माया प्रगटि सकल जग मोहै। कारन-करन करै सो सोहै॥
सिव-समाधि जिहि अंत न पावै। सोइ गोप की गाइ चरावै॥
अच्युत रहै सदा जल-साई। परमानंद परम सुखदाई॥
लोक रचे राखैं अरु मारे। सो ग्वालनि सँग लीला धारै॥
काल डरै जाकैं डर भारी। सो ऊखल बाँध्यौ महतारी॥
गुन अतीत, अबिगत, न जनावै। जस अपार, स्रुति पार न पावै॥
जाकी महिमा कहत न आवै। सो गोपिन सँग रास रचावै॥
जाकी माया लखै न कोई। निर्गुन-सगुन धरै बपु सोई॥
चौदह भुवन पलक मैं टारै। सो बन-बीथिन कुटी सँवारै॥
चरन-कमल नित रमा पलौवै। चाहति नैंकु नैन भरि जोवै॥
अगम, अगोचर, लीला-धारी। सो राधा-बस कुंज-बिहारी॥
बड़भागी वै सब ब्रजबासी। जिन कै सँग खेलैं अबिनासी॥
जो रस ब्रह्मादिक नहिं पावैं। सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं॥
सूर सुजस ब्रह्मादिक नहिं पावैं। सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं॥
सूर सुजस कहि कहा बखानै। गोबिंद की गति गोबिंद जानै॥
भावार्थ:- जो श्रीहरि सबके आदि कारण है, सनातन हैं, अविनाशी हैं, सदा-सर्वदा सबके भीतर निवास करते हैं, पुराण पूर्णब्रह्म कहकर जिनका वर्णन करते हैं, ब्रह्मा और शंकर भी जिनका पार नहीं पाते, वेद भी जिनके अगम्य गुणगणों को जान नहीं पाते, उन्हीं को मैया यशोदा गोद में खिलाती हैं। ज्ञानी-जन जिस एक तत्त्व का निरन्तर ध्यान करते हैं, वह निर्वाणस्वरूप पुराण पुरुष जप, तप, संयम से ध्यान में भी नहीं आता, वही नन्द बाबा के आँगन में दौड़ता है। जिसके नेत्र, कर्ण, जिह्वा, नासिका आदि कोई इंद्रिया नहीं, बिना हाथ-पैर के ही जो सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित कर रहा है, जिसका अपना नाम विश्वम्भर कहा जाता है, वही (गोकुल में) घर-घर गोरस (दही-माखन) की चोरी करता है। शुकदेव, शारदा जैसे जिसका चिन्तन किया करते हैं, देवर्षि नारद जैसे जिसका पार नहीं पाते, जिस अरूप के रूप को वेद भी धारण नहीं कर पाते, (प्रेमवश) वही गोपियों के मुख देखा करता है। जो बुढ़ापा और मृत्यु से रहित एवं मायातीत हैं, जिसकी न कोई माता है, न पिता है, न पुत्र है, न भाई है, न स्त्री है, जो ज्ञानस्वरूप हृदय में बोल रहा (वाणी का आधार) है, वही (ब्रज में) बछड़ों के पीछे-पीछे घूमता है। जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और आकाश विस्तार करके जिसने इन पञ्चतत्त्वों से सारे जगत को उत्पन्न किया, अपनी माया को प्रकट करके जो समस्त संसार को मोहित किये है, जगत् का कारण, जगत्-निर्माण के करण (साधन) तथा जगत् के कर्ता (तीनों ही) रूपों में जो स्वयं शोभित है, शंकर जी समाधि के द्वारा भी जिनका अन्त नहीं पाते, वही गोपों की गायें चराता है। जो अच्युत सदा जलशायी (क्षीर-सिन्धु में शयन करने वाला) है, परमसुखदाता परमानन्द स्वरूप है, जो विश्व की रचना, पालन और संहार करने वाला है, वही गोपों के साथ (अनेक प्रकार की) क्रीड़ाएँ करता है, जिसके महान् भय से काल भी डरता रहता है, माता यशोदा ने उसी को ऊखल में बाँध दिया। जो गुणातीत है, अविज्ञात है, जिसे जाना नहीं जा सकता, जिसके अपार सुयश का अन्त वेद भी नहीं पाते, जिसकी महिमा का वर्णन किया नहीं जा सकता, वही गोपियों के साथ रास-लीला करता है। जिसकी माया को कोई जान नहीं सकता, वही निर्गुण और सगुण स्वरूपधारी भी है। जो (इच्छा करते ही) एक पल में चौदहों भुवनों को ध्वस्त कर सकता है, वही वृन्दावन की वीथियों में निकुञ्जों को सजाता है। लक्ष्मी जी जिसके चरणकमलों को नित्य पलोटती रहती हैं और यही चाहती है कि तनिक नेत्र भरकर (भली प्रकार) मेरी ओर देख लें, वही अगम्य, अगोचर लीलाधारी (भगवान) श्री राधा जी के वश होकर निकुञ्जों में विहार करते हैं। वे सब ब्रजवासी बड़े ही भाग्यवान् हैं, जिनके साथ अविनाशी (परमात्मा) खेलता है। जिस रस को ब्रह्मादि देवता नहीं पाते, उसी प्रेमरस को वह गोकुल की गलियों में ढुलकाता-बहाता है। सूरदास कहाँ तक उसका वर्णन करे, गोविन्द की गति तो वह गोविन्द ही जानता है।